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कविता

निराशा की कविता

मंगलेश डबराल


बहुत कुछ करते हुए भी जब यह लगे कि हम कुछ नहीं कर पाए तो उसे निराशा कहा जाता है। निराश आदमी को लोग दूर से ही सलाम करते हैं। अपनी निराशा को हम इस तरह बचाए रखते हैं जैसे वही सबसे बड़ी खुशी हो। हमारी आँखों के सामने संसार पर धूल जमती है। चिड़ियाँ फटे हुए कागजों की तरह उड़ती दिखती हैं। संगीत भी हमें उदार नहीं बना पाता। हमें हमेशा कुछ बेसुरा बजता हुआ सुनाई देता है। रंगों में हमें खून के धब्बे और हत्याओं के बाद के दृश्य दिखते हैं। शब्द हमारे काबू में नहीं होते और प्रेम मनुष्य मात्र के वश के बाहर लगता है।

निराशा में हम कहते हैं निराशा हमें रोटी दो। हमें दो चार कदम चलने की सामर्थ्य दो।


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